Feb 13, 2024

एक टोकरी भर मिट्टी

 

माधव राव सप्रे कृत ‘एक टोकरी भर मिट्टी’


कहानी की समीक्षा व सम्पूर्ण अध्ययन


माधव राव सप्रे का जीवन परिचय- (19 जून 1871 – 23 अप्रैल 1926)


पंडित माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून 1871 ई० में पथरिया, दमोह, मध्यप्रदेश में हुआ था। सप्रे जी एक कहानीकार

निबंधकार, समीक्षक, अनुवादक और संपादक के रूप में जाने जाते हैं। सन् 1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब इन्होने बिलासपुर ज़िले के एक गाँव पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नाम का एक मासिक पत्रिका निकाली। यह पत्रिका सिर्फ तीन वर्ष ही चला। इन्होंने गीता रहस्य, हिन्दी दासबोध और महाभारत का अनुवाद किया।


रचनाएँ-


1. स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट


2. यूरोप के इतिहास से सिखने योग्य बातें


3. हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार

4. माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादक देवीप्रसाद वर्मा)


5. ‘हिन्दी केसरी’ और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका का संपादन किया।


6. इनकी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी का प्रकाशन ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में 1901ई० में प्रकाशित हुआ था।


7. ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की चर्चा हिंदी में 1968 में सारिका पत्रिका के फ़रवरी अंक, पृष्ठ संख्या-19 में शुरू होती है।


8. इस कहानी को बहुत सारे आधुनिक समीक्षकों ने हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।



एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी का मुख्य बिंदु, समीक्षा और सारांश

यह एक बहुत ही छोटी और कर्तव्य श्रेष्ठ कहानी है।

यह कहानी आज के यथार्थ से जुड़ी हुई है। 

यह कहानी वर्ग भेद पर आधारित है। इसमें एक गरीब के शोषण का चित्रण है।

इस कहानी में अहंकार और स्वार्थ का चित्रण जमींदार के रूप में किया गया है।

एक गरीब बुजुर्ग महिला द्वारा जमींदार का हृदय परिवर्तन होना दिखाया गया है।


डॉ० गोपाल राय ने इस कहानी को “संवेदना के क्षण की अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी की पहली कहानी के रूप में मान्यता देते हुए इसकी भाषा को ठेठ देशी हिन्दी भाषा बताया है।”


डॉ० सत्यकाम इसे प्रतीकात्मक कहानी मानते है– “उपरी तौर पर यह एक जमींदार के जुल्म की कहानी लगती है, किंतु असल में यह मातृभूमि से लागाव की प्रति कहानी है। यह एक टोकरी भर मिट्टी पूरे देश की मिट्टी बन गई।”


कहानी में सिर्फ दो पात्र है- जमींदार और अनाथ विधवा    


गौण पात्र- जमींदार का वकील और विधवा की पोती


कहानी -

किसी श्रीमान ज़मींदार के महल के पास एक ग़रीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। ज़मींदार साहब को अपने महल का अहाता उस झोंपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई ज़माने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्याउ को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट कर रोने लगती थी और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तबसे वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फनल हुए, तब वे अपनी ज़मींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्हों ने अदालत से झोंपड़ी पर अपना क़ब्ज़ान करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी। 


एक दिन श्रीमान उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि इसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्हावरी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' ज़मींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हाा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान ने आज्ञा दे दी। 


विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मिरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभाल कर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को ज़रा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' ज़मींदार साहब पहले तो बहुत नाराज़ हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वपयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्यों ही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्योंआही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंोने अपनी सब ताक़त लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्था न पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।'' 


यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज़ न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्मस-भर क्योंऔकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए। 


ज़मींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्तर वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गई। कृतकर्म का पश्चा्ताप कर उन्होंएने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी। 


स्रोत :

पुस्तक : हिन्दी कहानी का पहला दशक (पृष्ठ 59) संपादक : भवदेव पाण्डेय रचनाकार : माधवराव सप्रे प्रकाशन : रेमाधव पब्लिकेशन्स प्राइवेट लिमिटेड संस्करण : 2006


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